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| 3 | 野分(大島本) | 3 | |
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| 7 | 渋谷栄一注釈(ver.1-1-2) | 7 | |
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| 9 | 野分
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| 11 | [底本]
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| 12 | 財団法人古代学協会・古代学研究所編 角田文衛・室伏信助監修『大島本 源氏物語』第五巻 一九九六年 角川書店
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| 14 | [参考文献]
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| 15 | 池田亀鑑編著『源氏物語大成』第二巻「校異篇」一九五六年 中央公論社
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| 16 | | 16 | |
| 17 | 阿部秋生・秋山 虔・今井源衛・鈴木日出男校注・訳『古典セレクション 源氏物語』第七巻 一九九八年 小学館
| 17 | |
| 18 | 柳井 滋・室伏信助・大朝雄二・鈴木日出男・藤井貞和・今西祐一郎校注『新日本古典文学大系 源氏物語』第三巻 一九九五年 岩波書店
| 18 | |
| 19 | 阿部秋生・秋山 虔・今井源衛・鈴木日出男校注・訳『完訳日本の古典 源氏物語』第五巻 一九八五年 小学館
| 19 | |
| 20 | 石田穣二・清水好子校注『新潮日本古典集成 源氏物語』第四巻 一九七九年 新潮社
| 20 | |
| 21 | 阿部秋生・秋山 虔・今井源衛校注・訳『日本古典文学全集 源氏物語』第三巻 一九七二年 小学館
| 21 | |
| 22 | 玉上琢弥著『源氏物語評釈』第五巻 一九六五年 角川書店
| 22 | |
| 23 | 山岸徳平校注『日本古典文学大系 源氏物語』第三巻 一九六一年 岩波書店
| 23 | |
| 24 | 池田亀鑑校注『日本古典全書 源氏物語』第三巻 一九五〇年 朝日新聞社
| 24 | |
| 25 | | 25 | |
| 26 | 伊井春樹編『源氏物語引歌索引』一九七七年 笠間書院
| 26 | |
| 27 | 榎本正純篇著『源氏物語の草子地 諸注と研究』一九八二年 笠間書院
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| 28 | | 28 | |
| 29 | 第一章 夕霧の物語 継母垣間見の物語
| 29 | |
| 30 |
| 30 | |
| 31 | 八月野分の襲来---中宮の御前に、秋の花を植ゑさせたまへること | 31 | |
| 32 | 夕霧、紫の上を垣間見る---南の御殿にも、前栽つくろはせたまひける折にしも | 32 | |
| 33 | 夕霧、三条宮邸へ赴く---人びと参りて、「いといかめしう吹きぬべき風にはべり | 33 | |
| 34 | 夕霧、暁方に六条院へ戻る---暁方に風すこししめりて、村雨のやうに降り出づ | 34 | |
| 35 | 源氏、夕霧と語る---御格子を御手づから引き上げたまへば | 35 | |
| 36 | 夕霧、中宮を見舞う---中将下りて、中の廊の戸より通りて、参りたまふ | 36 | |
| 37 | | 37 | |
| 38 | 第二章 光源氏の物語 六条院の女方を見舞う物語
| 38 | |
| 39 |
| 39 | |
| 40 | 源氏、中宮を見舞う---南の御殿には、御格子参りわたして、昨夜 | 40 | |
| 41 | 源氏、明石御方を見舞う---こなたより、やがて北に通りて、明石の御方を | 41 | |
| 42 | 源氏、玉鬘を見舞う---西の対には、恐ろしと思ひ明かしたまひける | 42 | |
| 43 | 夕霧、源氏と玉鬘を垣間見る---中将、いとこまやかに聞こえたまふを | 43 | |
| 44 | 源氏、花散里を見舞う---東の御方へ、これよりぞ渡りたまふ | 44 | |
| 45 | | 45 | |
| 46 | 第三章 夕霧の物語 幼恋の物語
| 46 | |
| 47 |
| 47 | |
| 48 | 夕霧、雲井雁に手紙を書く---むつかしき方々めぐりたまふ御供に歩きて | 48 | |
| 49 | 夕霧、明石姫君を垣間見る---渡らせたまふとて、人々うちそよめき | 49 | |
| 50 | 内大臣、大宮を訪う---祖母宮の御もとにも参りたまへれば | 50 | |
| 51 | | 51 | |
| 52 | | 52 | |
| 53 | 第一章 夕霧の物語 継母垣間見の物語 | 53 | |
| 54 | [第一段 八月野分の襲来]
| 54 | |
| 55 | 【中宮の御前に】−今上(冷泉院)の中宮(秋好中宮)。その里邸六条院秋の御殿。
| 55 | |
| 56 | 【植ゑさせたまへる】−二重敬語、中宮への重々しい待遇。
| 56 | |
c1 | 57 | 【朝夕露の光も世の常ならず玉とかがやきて】−「植ゑたてて君がしめゆふ花なれば玉と見えてや露もおくらむ」(後撰集秋中、二八〇、伊勢)<BR> | 57 | 【朝夕露の光も世の常ならず、玉かとかかやきて】−「植ゑたてて君がしめゆふ花なれば玉と見えてや露もおくらむ」(後撰集秋中、二八〇、伊勢)<BR> |
| 58 | 【春秋の争ひに昔より秋に心寄する人は数まさりけるを】−「ふゆごもり 春さりくれば なかざりし 鳥もきなきぬ さかざりし 花もさけれど 山をしげみ いりてもとらず 草ふかみ とりても見えず 秋山の 木のはを見ては もみぢをば とりてぞしのぶ あをきをば おきてぞなげく そこしうらみし 秋山ぞわれは」(万葉集巻一、一六)。「春はただ花のひとへに咲くばかり物のあはれは秋ぞまされりける(拾遺集雑下、五一一、読人しらず)。「春はただ花こそは散れ野辺ごと錦を張れる秋はまされり」(河海抄所引、出典未詳)。
| 58 | |
| 59 | 【名立たる】−「数知らず君が齢をのばへつつ名立たる宿の露とならなむ」(後撰集秋下、三九四、伊勢)。「露だにも名立たる宿の菊ならば花の主やいくよなるらむ(後撰集秋下、三九五、藤原雅正)
| 59 | |
| 60 | 【春の御前】−六条院春の御殿。
| 60 | |
| 61 | 【移ろふけしき世のありさまに似たり】−「色見えで移ろふものは世の中の人の心の花にぞありける」(古今集恋五、七九五、伊勢)
| 61 | |
| 62 | 【里居したまふ】−中宮への重々しい待遇から普通の敬語になる。
| 62 | |
| 63 | 【故前坊】−中宮の父、故前皇太子。
| 63 | |
c1 | 64 | 【露の玉のを乱るる】−「白露に風の吹きしく秋の野は貫きとめぬ玉ぞ散りける」(後撰集秋中、三〇八、文屋朝康)。「玉の緒」は歌語。<BR> | 64 | 【露の玉の緒乱るる】−「白露に風の吹きしく秋の野は貫きとめぬ玉ぞ散りける」(後撰集秋中、三〇八、文屋朝康)。「玉の緒」は歌語。<BR> |
| 65 | 【おほふばかりの袖は】−「大空に覆ふばかりの袖もがな春さく花を風にまかせじ」(後撰集春中、六四、読人しらず)
| 65 | |
| 66 | | 66 | |
| 67 | [第二段 夕霧、紫の上を垣間見る]
| 67 | |
| 68 | 【南の御殿にも】−六条院南の御殿、すなわち春の御殿、紫の上方。
| 68 | |
| 69 | 【もとあらの小萩はしたなく待ちえたる風のけしきなり】−「宮城野のもとあらの小萩露を重み風を待つごと君をこそまて」(古今集恋四、六九四、読人しらず)
| 69 | |
| 70 | 【折れ返り露もとまるまじく】−「折れ返り」「露」は、「萩」の縁語。
| 70 | |
| 71 | 【姫君】−源氏の娘(明石の姫君)、八歳。
| 71 | |
| 72 | 【中将の君】−源氏の子息(夕霧)、従四位下相当官、十五歳。
| 72 | |
| 73 | 【東の渡殿】−寝殿と東の対を繋ぐ渡殿。
| 73 | |
| 74 | 【妻戸】−建物の四隅にある開き戸。
| 74 | |
| 75 | 【御屏風も】−以下、夕霧の眼を通して語られる。
| 75 | |
| 76 | 【廂の御座】−寝殿の南廂の御座所。
| 76 | |
| 77 | 【気高くきよらに】−「気高し」は上品でおかしがたい感じ。「清ら」は源氏物語では天皇・皇族の超一流の美に対して使われる表現。
| 77 | |
| 78 | 【春の曙の霞の間よりおもしろき樺桜の咲き乱れたるを見る心地す】−「浅緑野辺の霞はつつめどもこぼれて匂ふ花桜かな」(拾遺集春、四〇、読人しらず)。「山桜霞の間よりほのかにも見てし人こそ恋しかりけれ」(古今集恋一、四七九、貫之)。
| 78 | |
| 79 | 【いかにしたるにかあらむ】−夕霧の疑問、同時に語り手の疑問を介入させた句。
| 79 | |
| 80 | 【大臣の】−以下「なりけり」まで、夕霧の心内。
| 80 | |
| 81 | 【西の御方より】−姫君のお部屋から。すなわち、ここは東西に細長い寝殿。姫君は西の間に、紫の上は東の間にいる。
| 81 | |
| 82 | 【いとうたて】−以下「あらはにもこそあれ」まで、源氏の紫の上への詞。
| 82 | |
| 83 | 【もの聞こえて】−以下、夕霧の眼を通して語られる。
| 83 | |
| 84 | 【女もねびととのひ】−夕霧の眼は「女」と捉えている。
| 84 | |
| 85 | 【年ごろかかることの】−以下「見つるかな」まで、夕霧の心内。
| 85 | |
| 86 | | 86 | |
| 87 | [第三段 夕霧、三条宮邸へ赴く]
| 87 | |
| 88 | 【人びと参りて】−家司たち。
| 88 | |
| 89 | 【いといかめしう】−以下「危ふげになむ」まで、家司たちの詞。
| 89 | |
| 90 | 【馬場の御殿南の釣殿】−六条院丑寅の町に夏の御殿として馬場殿と釣殿があり、花散里が住む。
| 90 | |
| 91 | 【中将はいづこよりものしつるぞ】−「中将」は夕霧。源氏の詞。
| 91 | |
| 92 | 【三条の宮に】−以下「まかではべりなむ」まで、夕霧の詞。三条の宮には夕霧の祖母大宮がいる。七十歳前後。
| 92 | |
| 93 | 【げにはや】−以下「こそあれ」まで、源氏の詞。
| 93 | |
| 94 | 【かく騒がしげに】−以下「譲りてなむ」まで、源氏の伝言。
| 94 | |
| 95 | 【朝臣】−親しみをこめて呼ぶ時に用いる。
| 95 | |
| 96 | 【三条宮と六条院とに参りて御覧ぜられたまはぬ日なし】−夕霧の祖母大宮は母親代わりとなって育てた。「凡そ病患有るに非んば日々必ず親に謁すべし」(九条殿遺誡)。
| 96 | |
| 97 | 【かかる空のけしきにより】−「大風疾雨雷鳴地震水火の変、非常の時は早く親を訪ひ、次に朝に参る」(九条殿遺誡)。
| 97 | |
| 98 | 【ここらの齢に】−以下「あはざりつれ」まで、大宮の詞。
| 98 | |
| 99 | 【かくてものしたまへること】−大宮の詞。
| 99 | |
c1 | 100 | 【そこらところせかりし御勢ひ】−大宮は、帝(桐壷)の妹宮、太政大臣の北の方。今は、未亡人、孫の中将(夕霧)一人を頼りとする。<BR> | 100 | 【そこら所狭かりし御勢ひ】−大宮は、帝(桐壷)の妹宮、太政大臣の北の方。今は、未亡人、孫の中将(夕霧)一人を頼りとする。<BR> |
| 101 | 【内の大殿の御けはひ】−大宮の嫡男、内大臣。元右大臣の四君に婿入りし、以後別居生活となる。
| 101 | |
| 102 | 【心にかけて恋しと思ふ人】−夕霧が。伯父内大臣の娘、従兄妹にあたる人(雲居雁)。
| 102 | |
| 103 | 【ありつる御面影】−継母(紫の上)の面影。
| 103 | |
| 104 | 【来し方行く末】−以下「いとほし」まで、夕霧の心内。
| 104 | |
| 105 | 【東の御方】−六条院東北の町の御方、すなわち夕霧の母代の花散里。
| 105 | |
| 106 | 【さやうならむ人】−以下「延びなむかし」まで、夕霧の心内。
| 106 | |
| 107 | | 107 | |
| 108 | [第四段 夕霧、暁方に六条院へ戻る]
| 108 | |
| 109 | 【六条院には】−以下「倒れたり」まで、人々の声。
| 109 | |
| 110 | 【風の】−以下「思されつらむ」まで、夕霧の心内。
| 110 | |
c1 | 111 | 【何ごとぞやまたわが心に思加はれるよ】−夕霧の心内。<BR> | 111 | 【何ごとぞや。またわが心に思ひ加はれるよ】−夕霧の心内。<BR> |
| 112 | 【いと似げなきことなりけりあなもの狂ほし】−夕霧の心内。
| 112 | |
| 113 | 【懼ぢ極じて】−『集成』は「極(ごう)」は「極(ごく)」の音便、疲れる意、『完訳』は通説の「困(こう)じて」とする。「極(ごう)ず」が適切。
| 113 | |
c1 | 114 | 【まだ御簾も参らず】−御簾を上げてない。<BR> | 114 | 【まだ御格子も参らず】−御簾を上げてない。<BR> |
| 115 | 【中将の】−以下「深からむ」まで、源氏の詞。
| 115 | |
| 116 | 【何ごとにかあらむ】−以下「笑ひたまひて」まで、夕霧と語手の疑問が一体になった表現。
| 116 | |
| 117 | 【いにしへだに】−以下「心苦しからむ」まで、源氏の詞。
| 117 | |
| 118 | 【ゆるびなき御仲らひかな】−夕霧の感想。
| 118 | |
| 119 | | 119 | |
| 120 | [第五段 源氏、夕霧と語る]
| 120 | |
| 121 | 【いかにぞ】−以下「たまひきや」まで、源氏の詞。
| 121 | |
| 122 | 【しか】−以下「こそはべれ」まで、夕霧の詞。
| 122 | |
| 123 | 【今いくばくも】−以下「ことはかたかりける」まで、源氏の詞。
| 123 | |
| 124 | 【いとおどろおどろしかりつる】−以下「さぶらひつらむや」まで、源氏の詞。
| 124 | |
| 125 | 【夜の風の音は】−以下「ほどになむ」まで、源氏の中宮への伝言。
| 125 | |
| 126 | | 126 | |
| 127 | [第六段 夕霧、中宮を見舞う]
| 127 | |
| 128 | 【うちとけたるはいかがあらむ】−語り手の推測。
| 128 | |
| 129 | 【御参りのほど】−中宮の入内は「絵合」巻。夕霧、十歳の頃である。
| 129 | |
| 130 | 【宰相の君内侍など】−宰相の君、内侍、いずれも女房。
| 130 | |
| 131 | | 131 | |
| 132 | 第二章 光源氏の物語 六条院の女方を見舞う物語 | 132 | |
| 133 | [第一段 源氏、中宮を見舞う]
| 133 | |
| 134 | 【荒き風をも】−以下「はべりぬる」まで、夕霧の詞。中宮の返事。
| 134 | |
| 135 | 【あやしく】−以下「思いつらむ」まで、源氏の詞。
| 135 | |
| 136 | 【短き御几帳】−以下「こそはあらめ」まで、夕霧の眼を通して語る。
| 136 | |
| 137 | 【中将の朝けの姿は】−以下「心の闇にや」まで、源氏の詞。「わが背子が朝明の姿よく見ずて今日のあひだを恋ひ暮らすかも」(万葉集巻十二、二八五二、読人知らず)。「人の親の心は闇にあらねども子を思ふ道にまどひぬるかな」(後撰集雑一、一一〇二、藤原兼輔)。
| 137 | |
| 138 | 【わが御顔は古りがたくよしと見たまふべかめり】−語り手の批評。
| 138 | |
| 139 | 【宮に】−以下「おはするや」まで、源氏の詞。
| 139 | |
| 140 | 【昨日】−以下「開きたりしによ」まで、源氏の詞。
| 140 | |
| 141 | 【いかでか】−以下「せざりしものを」まで、紫上の詞。
| 141 | |
| 142 | 【なほあやし】−源氏の独語。
| 142 | |
| 143 | 【渡りたまひぬ】−中宮の御殿へ。
| 143 | |
| 144 | | 144 | |
| 145 | [第二段 源氏、明石御方を見舞う]
| 145 | |
| 146 | 【こなたより】−中宮の秋の御殿。
| 146 | |
| 147 | 【とかく引き出で尋ぬるなるべし】−語り手の想像。
| 147 | |
| 148 | 【いといたし】−語り手の感想。
| 148 | |
| 149 | 【心やましげなり】−語り手の感想。
| 149 | |
| 150 | 【おほかたに荻の葉過ぐる風の音も憂き身ひとつにしむ心地して】−明石御方の独詠歌。「いとどしく物思ふ宿の荻の葉に秋と告げつる風のわびしさ」(後撰集秋上、二二〇、読人しらず)。
| 150 | |
| 151 | | 151 | |
| 152 | [第三段 源氏、玉鬘を見舞う]
| 152 | |
| 153 | 【西の対】−花散里の東の御殿の西の対、玉鬘が住む。
| 153 | |
| 154 | 【ことことしく前駆な追ひそ】−源氏の詞。
| 154 | |
| 155 | 【聞こえ戯れ】−源氏が玉鬘に。
| 155 | |
| 156 | 【うたてと思ひて】−主語は玉鬘。
| 156 | |
| 157 | 【かう心憂ければこそ】−以下「はべりつれ」まで、玉鬘の詞。
| 157 | |
| 158 | 【風につきて】−以下「ことわりや」まで、源氏の詞。
| 158 | |
| 159 | 【げに】−以下「聞こえてけるかな」まで、玉鬘の心。
| 159 | |
| 160 | | 160 | |
| 161 | [第四段 夕霧、源氏と玉鬘を垣間見る]
| 161 | |
| 162 | 【いかでこの御容貌見てしがな】−夕霧の心。
| 162 | |
| 163 | 【あやしのわざや】−以下「近かべきほどは」まで、夕霧の心。
| 163 | |
| 164 | 【見やつけたまはむ】−夕霧の心。
| 164 | |
| 165 | 【柱隠れに】−以下、夕霧の視点で語られる。
| 165 | |
| 166 | 【ことと馴れ馴れしきに】−以下「あな疎まし」まで、夕霧の心を通して語られる。
| 166 | |
| 167 | 【と思ふ心も恥づかし】−夕霧の性格に対する語り手の批評。
| 167 | |
| 168 | 【女の御さま】−以下「異腹ぞかし」まで夕霧の心。
| 168 | |
| 169 | 【などか心あやまりもせざらむ】−夕霧の心。
| 169 | |
| 170 | 【昨日見し御けはひにはけ劣りたれど】−地の文でありながら、夕霧の判断を含ませた心の文と一体化した文章。
| 170 | |
| 171 | 【折にあはぬよそへどもなれど】−以下「たとへむ方なきものなりけり」まで、夕霧の譬喩が今の季節に合わないとする語り手の批評。
| 171 | |
| 172 | 【いかがあらむ】−語り手の推測。
| 172 | |
| 173 | 【女君】−玉鬘。
| 173 | |
| 174 | 【吹き乱る風のけしきに女郎花しをれしぬべき心地こそすれ】−玉鬘の和歌。「濡れ濡れも明けばまづ見む宮城野のもとあらの萩はしをれぬらむ」(長能集、一三)
| 174 | |
| 175 | 【うち誦じたまふ】−源氏が玉鬘の歌を。
| 175 | |
| 176 | 【なほ見果てまほしけれど】−夕霧の心を語り手が忖度。
| 176 | |
| 177 | 【近かりけりと見えたてまつらじ】−夕霧の心。
| 177 | |
| 178 | 【下露になびかましかば女郎花荒き風にはしをれざらまし】−源氏の返歌。「女郎花」「風」「しをれ」の語句を受けて返す。
| 178 | |
| 179 | 【などひが耳にやありけむ聞きよくもあらずぞ】−源氏の返歌があまり上手な出来でないとする語り手の批評。
| 179 | |
| 180 | | 180 | |
| 181 | [第五段 源氏、花散里を見舞う]
| 181 | |
| 182 | 【東の御方へ】−花散里のお部屋。
| 182 | |
| 183 | 【これより】−玉鬘の居所から。夏の御殿の西の対の文殿を改造した部屋。
| 183 | |
| 184 | 【うちとけわざにや】−源氏の眼を通して語られる。
| 184 | |
| 185 | 【中将の下襲か】−以下「秋なめり」まで、源氏の花散里への詞。
| 185 | |
| 186 | 【何にかあらむ】−源氏と語り手が一体化した推測。
| 186 | |
| 187 | 【かやうなる方は南の上にも劣らずかし】−源氏の心内。花散里の裁縫染色の技量が南の上(紫の上)にも劣らないことを認める。
| 187 | |
| 188 | 【中将にこそ】−以下「めやすかめり」まで、源氏の花散里への詞。
| 188 | |
| 189 | 【などやうのことを】−語り手の概括の加わった表現。
| 189 | |
| 190 | | 190 | |
| 191 | 第三章 夕霧の物語 幼恋の物語 | 191 | |
| 192 | [第一段 夕霧、雲井雁に手紙を書く]
| 192 | |
| 193 | 【姫君の御方】−明石の姫君のお部屋。
| 193 | |
| 194 | 【まだあなたに】−以下「上がりたまはざりつる」まで、乳母の詞。
| 194 | |
| 195 | 【え--ざりつる】−「え」(副詞)--打消しの助動詞「ず」の構文。不可能の意を表す。
| 195 | |
| 196 | 【もの騒がしげ】−以下「いかがおはすらむ」まで、夕霧の詞。
| 196 | |
| 197 | 【思ひたまへしを】−謙譲の補助動詞「たまへ」下二段活用。
| 197 | |
| 198 | 【扇の風だに】−以下「わびにてはべり」まで、女房の詞。
| 198 | |
| 199 | 【ことことしからぬ】−以下「御局の硯」まで、夕霧の詞。
| 199 | |
| 200 | 【いなこれはかたはらいたし】−夕霧の詞。
| 200 | |
| 201 | 【北の御殿】−明石の御方。
| 201 | |
| 202 | 【紫の薄様なりけり】−以下「ものしたまへ」まで、語り手の評。
| 202 | |
| 203 | 【風騒ぎむら雲まがふ夕べにも忘るる間なく忘られぬ君】−夕霧から雲井雁への贈歌。
| 203 | |
| 204 | 【吹き乱れたる苅萱】−「まめなれどよき名も立たず刈萱のいざ乱れなむしどろもどろに」(古今六帖六、刈萱、三七八五)を踏まえて、共寝してみたいと詠んで贈った。
| 204 | |
| 205 | 【交野の少将は】−以下「ととのへはべりりけれ」まで、女房の詞。
| 205 | |
| 206 | 【さばかりの色も】−以下「花よ」まで、夕霧の詞。
| 206 | |
| 207 | 【いづこの野辺のほとりの花】−引歌があるか、未詳。
| 207 | |
| 208 | 【馬の助に】−夕霧の側近。
| 208 | |
| 209 | | 209 | |
| 210 | [第二段 夕霧、明石姫君を垣間見る]
| 210 | |
| 211 | 【渡らせたまふ】−「せ」(尊敬の助動詞)+「たまふ」(尊敬の補助動詞)、最高敬語。主語は、明石姫君。
| 211 | |
| 212 | 【もののそばより】−以下、夕霧の目を通して語られる明石姫君。
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| 213 | 【髪のまだ丈には】−明石姫君、八歳。
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| 214 | 【一昨年ばかりは】−以下「いかならむ」まで、夕霧の心。
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| 215 | 【かの見つる先々の桜山吹】−以下「あるかし」まで、夕霧の心。「桜」は紫の上、「山吹」は玉鬘をさす。
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| 216 | 【これは】−明石姫君。
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| 217 | 【かかる人びとを】−以下「つらけれ」まで、夕霧の心。
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| 219 | [第三段 内大臣、大宮を訪う]
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| 220 | 【祖母宮の御もとに】−三条宮邸の祖母宮。
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| 221 | 【御物語など聞こえたまふ】−内大臣と大宮との会話。夕霧はこの場面にいない。
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| 222 | 【姫君を】−以下「あさましきこと」まで、大宮の詞。姫君とは雲居雁。
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| 223 | 【今このころのほどに】−以下「尽くされはべりける」まで、内大臣の詞。
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c1 | 224 | 【心うくて】−大宮の心。<BR> | 224 | 【心憂くて】−大宮の心。<BR> |
| 225 | 【いと不調なる娘】−以下「もてわづらひはべりぬ」まで、内大臣の詞。近江の君のこと。
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| 226 | 【いであやし】−以下「やうやある」まで、大宮の詞、皮肉を含む。
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| 227 | 【それなむ】−以下「御覧ぜさせむ」まで、内大臣の詞。
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| 228 | 【聞こえたまふとや】−語り手が伝聞したということを表した形。
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| 230 | 源氏物語の世界ヘ
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| 231 | 本文
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| 232 | ローマ字版
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| 233 | 現代語訳
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| 234 | 大島本
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| 235 | 自筆本奥入
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